Sunday, March 13, 2011

वात्सल्य

चाँदनी थी धवल, शीतल थी वात
कार्तिक की पूर्णिमा की पावन सी रात
पर नदी के तट पर था क्षण क्षण का संघर्ष
रेत पर लेटा था नन्हा सा, हाय, ममता का रूप वो वीभत्स
नन्ही सी हथेली में बंद था एक जीवन
क्षण क्षण रुक कर दम भरती थी धड़कन
क्रंदन कर सकने का भी कौतुक ना था शेष
कैसा था हाय यह माता का क्लेश!
पर सृष्टि के कारक की लीला अपरंपार
उसकी ही कल्पना का नाट्य तो है संसार
की देख लिया उसको वात्सल्य की उस मूरत ने
मर्म को भेद दिया निष्कलुश सी उस सूरत ने
वक्ष से लगा कर, सहेज कर ले आई वो घर
"ईश्वर के इस उपकार को सींचूँगी जीवन भर"
यदि जीवन की कथा होती है पूर्व लिखित
तो मुस्काया होगा विधाता, सुनकर उक्ति ये विदित
उर के आँगन में बसे उस तुलसी के पौधे को
निम्मो कहकर पुकारा गया
अश्रयों से सींचा और आशाओं से निखारा गया
माता की गोद, सखियों की टोली
क्रीड़ा की उमंग और तॉतली सी बोली
कब छूट गये पीछे भान ना हो पाया
काल चक्र की गति थी या अपने मन की ही माया
आँखों में अग्नि, हर कदम में दंभ
हृदय में तरंग और साँसों में हड़कंप
विश्व विजयी मुस्कान लिए
माँ का आशीष, अरमान लिए
महासागरों के पार, जो है अनोखा संसार
था उसकी प्रतीक्षा में, सजाए संभावनाओं का हार
"शीघ्र लौट कर आऊँगी, किस्से सभी सुनाऊंगी
माँ बोलो ना परदेस से, उपहार क्या क्या लाऊंगी"
अनगिनत स्वप्न थे, अपार था हर्ष
फिर भी माँ की मुस्कान का था अश्रुओं से संघर्ष
थरथराते होठों से बोल न निकलते थे
मन में पल पल ममता के टीले जो पिघलते थे
पीछे छोड़कर भाव विभोर सा संसार
निम्मो आ पहुँची सागरों के पार
अथाह आसमान की नीलिमा के तले
भविष्या के अनगिनत स्वप्न थे पले
समय के साथ स्पर्धा थी जैसे
दौड़ रहे थे निम्मो के दिन रात वैसे
कि एक दिन गाँव से पत्र वो आ गया
रोशन जीवन में अंधकार-सा छा गया
"चली गयी छुड़ाकर वात्सल्य का आँचल,
माँ क्या रुक ना पाई तू मेरे लिए पल-भर?"
आँखें जैसे खोई हों टूटे सपनों की समीक्षा में
निगल ना जाए रात इन्हें भोर की प्रतीक्षा में!
टूट कर ढह गया साहस का हर स्तंभ
अब कैसी अभिलाषा! कैसा कोई स्वप्न!
कोई नही जानता था उस हृदय का क्लेश
जब लौटे वो कदम वापस अपने देश
घर की चौखट पर था सन्नाटे का शोर
और मुख पर अंतिम दर्शन से वंचित नैनों का बिछोह
दीवारों की तस्वीरों में बीते हुए सुख का दुख
शब्दों से रहित था उस सुवाचिका का मुख
पर माता के प्रेम को स्वीकार ना थी हार
मेज़ पर रखा था एक अंतिम उपहार
उन परिचित हस्ताक्षरों मे लिखी पंक्तियों का चयन
दे गयीं थी वो एक नव निर्माण का वचन:
"जीवन में एक सितारा था,
माना वो बेहद प्यारा था,
वो टूट गया तो टूट गया,
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है"
(जो बीत गयी, सो बात गयी)
With all due regards to Harivanshrai Bachchan and the magic he created with his words!